दशावतार: कुछ पंक्तियाँ ऐसे ही

पहले तो बता दूँ, विद्यालयोंतर हिंदी भाषा में यह मेरा पहला लेख है। तो सम्भव है, कि इन कुछ पंक्तियों में अनेक ग़लतियाँ हों। कहते हुए थोड़ी शरम भी आ रही है! आख़िर कितने ही बार मेरे बोलचाल के सहजात-रोध का कारण भाषा-रोध मान कर, शुभचिंतकों ने उदारता से कहा है, “भाई, तू चाहे तो हिंदी में ही बोल”। वो बात अलग है कि मैं फिर भी चुप रहा।

परंतु, आज विषय ऐसा चुना है, कि आंग्लभाषा में स्व-निपुणता प्रदर्शन के चक्कर में, मैं शायद ज़्यादा ही घुमा दूँ। इस अध्याय को एक प्रयोग माने।

विषय नहीं, एक विचित्र सा विचार है। बस एक प्रस्तुति है, एक “भक्त” की ओर से। जी, आजकल की राजनीतिक बोलचाल में प्रचलित परिभाषा वाला “भक्त” नहीं। उस परम ज्ञान बिंदु का भक्त, जिसे कोई ईश्वर, कोई अल्लाह और कोई गॉड कहता है। कुछ परम्ब्रह्म, परमशिव और महाविष्णु मानते है। कोई माँ कहके ममत्व माँगता है, तो कोई परमपिता पुकारके पापों से मुक्ति माँगता है। मैं उन्हें अपना इष्ट, और अपने हर सद- और कु- विचार का स्रोत मानकर, नमन करता हूँ। बस नाम नहीं देता। आख़िर नाम में रखा क्या है?

उन्ही से पूछा एक बार, आख़िर दशावतार क्यूँ और किस ध्येय से? कुछ आंशिक उत्तर समझ पाया, जो उनके दिए चक्षुओं से पढ़ा, और उनके प्रदत्त मस्तिष्क से सोचा है। उतना ग्रंथों का मंथन नहीं किया है, कि ख़म ठोक के बोल सकूँ कि आगे जो प्रस्तुत करूँगा, वो “ही” सही है। वो काम आप पर तथा आप सब में बसे आप ही के इष्ट पर छोड़ता हूँ।

प्रश्न का पहला आयाम है संख्या। दस ही अवतार क्यूँ? तीन, पाँच या उन्नीस क्यों नहीं?

दोषदर्शी मस्तिष्क बोल उठा, दस उँगलियों के ताने बाने है बंधु! सो संख्या उतनी ही जो गिन के बता पाए ज्ञान-दायी गुरु या विनोद-दायी कवि। भूल के अवसर कम, लेकिन संख्या इतनी भी कम नहीं, की श्रोता/अभिभावक ये समझे कि, “क्या, बस इतना ही?”

आप को शायद यह तर्क अधूरा लगे। वैसे भी कुछ ग्रंथों में अवतार संख्या भिन्न है, अधिक है। मेरी वर्तमान प्रस्तुति यह नहीं है, कि अवतार कितने थे, अपितु यह कि दशावतार ही हमारी सांस्कृतिक पटल पे अधिक दिखते क्यूँ? तो सार:- “अवतार संख्या वो चुनी गयी, जो गिन के बताना सहज हो।”

प्रश्न का द्वितीय आयाम, जो दस है, वो दस अवतार क्यूँ? इसको हम दो भागों में तोड़ते है। पहला भाग, प्रथम पाँच अवतरणों का। और दूसरा बाक़ी के आगमनों का।

पहले पाँच, के दो कारण हो सकते है।

कारण क्रमांक एक स्पष्ट प्रायः है, अगर आप श्रीमान डार्विन के सिद्धांतों के बारे में सोचें तो

प्रथम अवतार, मत्स्य। जिस रूप (लगभग) में जीव-जीवन का आविर्भाव हुआ था। एक विडम्बना है, कि श्री जगदीश चंद्र बोस के देश में, जब तक काटो तो लहू लाल ना निकले, जीवन है यह मान नहीं पाते। कभी कभी तो लाल लहू के बहने से भी जीवन का सम्मान नहीं। ख़ैर, फिर कभी!

द्वितीय अवतार, कुर्म। उभयचर (“ऐम्फ़िबीयस”) जीवन के प्रतिनिधि। जो अधिकतम अवधि जल में गुज़ारते हैं, किंतु जल से थल के ओर जब निकलते, भान देते है जैसे “हम छोड़ चले है उस जग को”।

और तृतीय वराह अवतार। वो स्थल जीवन के प्रतिनिधि, जो जल के आस-पास कच्छ भूमि (“वेट लैंड्ज़”) में प्रायः पाए जाते है।

चतुर्थ पायदान पे नरसिम्ह: अवतार। किंचित “न नरों न पशु” का उदाहरण। क्या हमारे पूर्वजों को आदिमानव अवशेषों का ज्ञान था, या फिर क्या उन्होंने कुछ आदिमानव समुदाय लुप्त होने से पहले देखे थे? उत्तर नहीं है, बस अटकलें है … लगाने में क्या हर्ज है?

पंचम पायदान पे, श्री वामन अवतार। मानव स्वरूप, जो पहले क़द में छोटे थे, और फिर पूर्ण विश्व को अपने पैरों से नाप लिए थे। इन्हें एक तरह से मानव जाती के आविर्भाव और विकास का सूचक-प्रायः मान सकते है।

कारण क्रमांक दो, अगर हम यह माने कि अनेक मान्यताओं के समागम से सनातन धर्म आगे बढ़ा। यह अवतार शृंखला पृथकपृथक मान्यताओं के पूज्य मुक्तकों को एक माला में पिरोने का उदाहरण हो, यह भी सम्भव है। इसी मक्रजाल-स्थल (“वेबसाइट”) पे त्रिमूर्ति के निर्माण पर अटकलें है। चाहें तो वो एक बार देख लें। आभार रहेगा!

अगर आप ध्यान दें, तो पहले पाँच अवतार आपस में ज़्यादा जुड़े है। मत्स्य रूप में प्रलय से वैवस्वत मनु और उनके द्वारा संकलित पशु-प्राणियों का उद्धार किया। कुर्म रूप में देवासुर द्वारा समुद्र-मंथन में प्रयुक्त मेरु का भार सहा। अनेक समृधियाँ प्राप्ति हुईं और अमृतपान से देवता अमर हुए, और देवासुर वैमनस्य और दृढ़ हुआ। इस वैमनस्य के कारण, असुर हिरण्याक्ष ने धरती का अपहरण किया, तो असुर संहार और धरती के उद्धार के लिए वराह अवतार लिया। हिरण्याक्ष के सहोदर, असुर हिरण्यकशिपु ने जब खुद को भगवान माना, तो उसके अहंकार को चकनाचूर करने स्तम्भ को खंडित कर नरसिम्ह रूप में प्रह्लाद की रक्षा की। प्रह्लाद के पौत्र (“ग्रैंड्सन”) महाबली जब देवताओं से अधिक यश कमाने लगा, तो उसे उसकी “औक़ात” दिखाने विप्र-रूप में श्री वामन-अवतार का आविर्भाव हुआ। तृतीय से पंचम अवतार तो तीन पीढ़ी में ही निपट गए।

अब प्रश्न के द्वितीय आयाम के द्वितीय भाग पे आते है, अर्थात् अवतार छह से लेकर दस।

यहाँ मामला थोड़ा पेंचीदा है। क्यूँकि यहाँ भिन्न ग्रंथों में भिन्नता है। और कुछ अवतारो में अधिव्यापन (“ओवर्लैप”) भी है। चलिए एक बार देख लेते है।

छठे अवतार थे, ऋषि जमदाग्नि और उनकी क्षत्रिय अर्धांगनी रेणुका के पुत्र ऋषि राम, जिन्हें उनके परशु-चालन निपुणता के कारण हम भगवान परशुराम कहते हैं। उन्होंने गर्वांध क्षत्रियों से परित्राण कर धरा का संतुलन प्रस्थापित किया था। वे अवतार के साथ चिरंजीवी भी थे/हैं।

सप्तम अवतार थे, अयोध्या के राजा राम, जिन्हें उनके कुल के नामानुसर रघुपति राघव भी कहते हैं। उनका आविर्भाव क्षत्रिय वंश में हुआ, ताकि एक ब्राह्मण कुल में जन्मे गर्वांध रावण का संहार हो पाए। गर्वांधता से द्वेष किंचित अवतार-प्रवृत्ति हो? कहते है ऋषि राम (छठे अवतार) जब राजा राम (सातवें अवतार) के सम्मुख आयें, तो उनका अवतार-अंश राजा राम को स्थानांतरित हो गया था।

आठवें और नौवे अवतार अलग ग्रंथों में अलग बताए गए हैं। तीन महापुरुष। प्रथम और ज्येष्ठ थे वसुदेव और रोहिणी पुत्र, बलदेव, जिन्हें बलराम भी कहते है। द्वितीय थे वसुदेव और देवकी पुत्र, कृष्ण, जिन्हें वासुदेव भी कहते है। तृतीय थे सुद्धोधन और मायादेवी के पुत्र शाक्यमुनि सिद्धार्थ, जिन्हें गौतम बुद्ध भी कहते हैं। कुछ पौराणिक सूचियों में अवतार-शृंखला है बलराम-कृष्ण। कुछ में हैं कृष्ण-बुद्ध। और शायद एक में (मैं स्वयं खोज नहीं पाया) बलराम-बुद्ध।

मेरे व्यक्तिगत मत में शायद मूल सूची में बलराम और कृष्ण, आठवें और नौवें अवतार थे। जिनमे बलराम अनंत-विष्णु के शेष अंश के अवतार थे, और कृष्ण महा-विष्णु के पूर्ण-अवतार थे। जब बौद्ध धर्म का प्रचार बढ़ा, तो सनातन धर्म ने उनको भी अपने अवतार-शृंखला में सम्मिलित करने की चेष्टा की। कुछ पुराण तो साक्यमुनि को लीला-अवतार मानते है, जो शाक्यों को हिंसा से दिग्भ्रमित करके सनातन धर्म की रक्षा करने आए थे। और कुछ का मानना है, कि वेदिक कर्मकाण्ड से पशु-बलि के निष्कासन हेतु उन्होंने अवतार लिया था।

अंतिम अवतार, जो कलियुग के अंत में अधर्म के विनाश और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अवतरित होंगे, उनका नाम कल्कि बताया गया है। वो (देवदत्त नामक) श्वेत अश्व पे आरूढ़, ज्वालामय कृपाण (जिसे रत्न-मारू कहा जाएगा) लिए, विश्व को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाएँगे।

कई पुरुषों और महापुरुषों ने कल्कि-अवतार होने का दावा किया है। परंतु, मेरे मतानुसार, जिस ओर देखें धर्म को ग्लानिभाव सहना पड़ रहा है। अधर्म के अभ्युत्थान पे कोई रोक नहीं है (स्वागत नहीं करोगे हमारा)। और सज्जनों और साधुओं की रक्षा युक्तियाँ पूर्णतः सफल नहीं हो पा रही है। तो संभवतः कल्कि-अवतार का आविर्भाव निकट है, पर प्रस्तुत नहीं।

प्रतीक्षा में एक विचार प्रस्तुत है।

अगर सनातन धर्म के संस्कार को माने तो हर जीव, हर मानव में, हर आत्मा में परमात्मा का अंश है। तो क्यों ना, हम सब साथ में चेष्टा करें, और दृढ़ निश्चय और निष्काम आशय के श्वेत-अश्व पे सवार हो, और सुकर्म और सुविचार के ज्वाल-खड्ग के द्वारा, अपने अंदर के अंधेरे कलियुग को दीप्तमान सतयुग में रूपांतरित करें।

प्रायः वेदिक और पौराणिक कथाएँ उपमा-रूपक होती है। मत्स्य अवतार के वृद्धि (इच्छा का असीम होना, क्षमता का सीमित होना) से लेकर रावण के दस मस्तको (हर तर्क को आत्मसात् करो किंतु धरम से मुख न मोड़ो) तक। नरसिम्ह के स्तम्भ से निकलने (खोजने से कण-कण में ज्ञान/ईश्वर हैं) से लेकर कृष्ण के कालिया मर्दन (अपने इंद्रियों पे पूर्ण नियंत्रण) तक। तो क्यों ना दशावतार से सहस्रोपदेश लें, और कहें अहम् ब्रह्मास्मि, और संकल्प दोहराए:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

4 thoughts on “दशावतार: कुछ पंक्तियाँ ऐसे ही

  1. I picked this topic for my first (personality development) presentation during my first job (and as a result was known as “that evolution girl” among my GET batch for years) and it was the same as this article almost point to point.

    The belief in Buddha as the ninth avatar comes from a statement by Adi-Shankarachrya, who, worried about the mass conversion to Jainism and Buddhism, declared Mahavir and Gautam Budhha as Vishnu-avatars and almost single handedly controlled the decline of hinduism in his era.

    Of course, I left out whatever that those last two paragraphs are supposed to say about Kalki or the author’s intellectual bent of mind. 😉

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    1. अगर आपके पद-चिन्हों पर चल रहा हूँ, तो अवश्य उतना भी भटका नहीं हूँ राह से। बुद्ध लीला-अवतार थे या वास्तव में अहिम्सा-वाद के हेतु अवतरित ह्यूई थे, इस पे थोड़ा विवाद है। रहने देते हैं। कल्कि अवतार पे बस चिंतन है, ग्रंथ-मंथन नहीं।

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